देश की राजनीति में धर्म चलेगा या जाति का दबदबा?
नई दिल्ली,27अगस्त। देश की राजनीति में यह सवाल बार-बार उभर कर सामने आता है: धर्म का दबदबा रहेगा या जाति का? यह बहस न केवल राजनीतिक मंचों पर होती है, बल्कि समाज के विभिन्न हिस्सों में भी गहराई से छाई रहती है। राजनीति में वैसे भी ऐसे मुद्दे कम ही होते हैं जो समय-समय पर बार-बार चर्चा में आते रहते हैं।
धर्म बनाम जाति की राजनीति
भारतीय राजनीति का इतिहास देखा जाए तो धर्म और जाति दोनों ही महत्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही राजनीतिक दलों ने धर्म और जाति के आधार पर अपना आधार मजबूत किया है। 1947 के विभाजन ने धर्म के आधार पर राजनीति को एक नई दिशा दी। वहीं, मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद जाति आधारित आरक्षण ने राजनीति में जाति के महत्व को और भी बढ़ा दिया।
धर्म की राजनीति:
धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले दल अक्सर ‘धर्म आधारित वोट बैंक’ पर निर्भर रहते हैं। चाहे वो हिन्दू धर्म हो, मुस्लिम धर्म हो, सिख धर्म हो या कोई और, धार्मिक पहचान को राजनीति में इस्तेमाल करना कोई नई बात नहीं है। यह देखा गया है कि धार्मिक आयोजन, धार्मिक प्रतीक और धार्मिक रैलियों का आयोजन कर पार्टियां अपने समर्थकों को एकजुट करने की कोशिश करती हैं। धार्मिक मुद्दों पर बयानबाजी और भावनात्मक अपील का सहारा लेकर जनता को प्रभावित करना इनका प्रमुख उद्देश्य होता है।
जाति की राजनीति:
जाति के आधार पर राजनीति करने वाले दल अक्सर जातीय समीकरणों के सहारे सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। भारत में जाति व्यवस्था बहुत पुरानी और गहरी जड़ें जमाई हुई है। विभिन्न जातीय समूहों के पास अपने-अपने विशेष मतदाता आधार होते हैं, जिन्हें लामबंद कर सत्ता तक पहुंचा जा सकता है। आरक्षण, जाति आधारित संगठन और जातीय महापंचायतें जाति आधारित राजनीति का प्रमुख हिस्सा होती हैं।
समय-समय पर उठता सवाल:
समय-समय पर जब चुनाव नज़दीक आते हैं, तब यह सवाल और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि आखिरकार राजनीति में किसका दबदबा रहेगा – धर्म का या जाति का? राजनीतिक विश्लेषक इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन स्थिति स्पष्ट नहीं होती। दरअसल, राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियों में धर्म और जाति दोनों का ही इस्तेमाल करते हैं। चुनावी सभाओं में कभी धर्म की बात होती है, तो कभी जाति की।
संभावनाएँ और चुनौतियाँ:
आज के दौर में, जहां समाज में शिक्षा और जागरूकता बढ़ रही है, वहां धर्म और जाति की राजनीति की अपनी सीमाएँ भी हैं। युवा पीढ़ी अब इन मुद्दों से ऊपर उठकर विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता दे रही है। ऐसे में राजनीतिक दलों के सामने यह चुनौती है कि वे धर्म और जाति से ऊपर उठकर वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें।
निष्कर्ष:
धर्म और जाति की राजनीति का खेल भारतीय राजनीति में सदियों से चलता आ रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा। परंतु यह समाज के सोचने का समय है कि क्या वे इसी खेल का हिस्सा बनकर रहना चाहते हैं, या फिर वास्तविक विकास के मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। समाज में जागरूकता और शिक्षा के बढ़ते स्तर से उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में राजनीति में धर्म और जाति से ऊपर उठकर विकास और प्रगति की राजनीति का दौर आएगा।
भारत की राजनीति के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर यह सवाल हमेशा खड़ा रहेगा कि धर्म चलेगा या जाति का दबदबा? जवाब शायद समाज की सोच में ही छुपा है, जिसे समय के साथ समझना होगा।