सुप्रीम कोर्ट बोला — राज्यपाल विधानसभा से पास बिलों को न लटकाएं: संवैधानिक संतुलन पर बड़ा रुख

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नई दिल्ली, 20 नवम्बर 2025 । सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया है कि राज्यपालों (Governor) को विधानसभा से पारित बिलों पर न तो अनिश्चित समय तक निर्णय लेने की स्वतंत्रता है, और न ही वे अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल करते हुए बिलों को “पॉकेट वीटो” (किसी बिल को बिना मंजूरी दिए अनिश्चितकाल तक लटका देना) कर सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रपति और राज्यपाल की बिल मंजूरी की डेडलाइन तय करने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि हमें नहीं लगता कि गवर्नरों के पास विधानसभाओं से पास बिलों (विधेयकों) पर रोक लगाने की पूरी पावर है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘गवर्नर्स के पास 3 ऑप्शन हैं। या तो मंजूरी दें या बिलों को दोबारा विचार के लिए भेजें या उन्हें प्रेसिडेंट के पास भेजें।’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिलों की मंजूरी के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। अगर देरी होगी तो हम दखल दे सकते हैं।

यह मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर ने राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।

इसी फैसले में कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सामने आया था। इसके बाद राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल पूछे थे। इस मामले में 8 महीने से सुनवाई चल रही थी।

CJI की अगुआई में 5 जजों की बेंच ने सुनवाई की

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की जगह इस मामले में चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुआई वाली संविधान पीठ ने सुनवाई की। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंद्रचूड़कर शामिल थे। सुनवाई 19 अगस्त से शुरू हुई थी।

सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखा। वहीं, विपक्ष शासित राज्य तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने केंद्र का विरोध किया।

क्यों यह फैसला मायने रखता है?
  • यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की रक्षा करता है, जहां विधान सभा (Assembly) द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल की मर्जी से अनिश्चितकाल तक रोका नहीं जा सकता।

  • राज्यपालों को यह याद दिलाता है कि उनकी संवैधानिक भूमिका सिर्फ रस्मी नहीं है; उन्हें सक्रिय रूप से और जवाबदेही के साथ काम करना होगा।

  • यह संवैधानिक शक्ति संतुलन (separation of powers) बनाए रखने में मदद करता है — मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर राज्यपाल द्वारा यथोचित समय में विचार करना चाहिए, न कि अड़चनें खड़ी करना।

  • भविष्य में, इस फैसले के आधार पर अन्य राज्यों में भी ऐसी घटनाएं (जहाँ राज्यपाल बिलों को लटकाते हों) कानूनी जाँच के दायरे में आ सकती हैं।

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